Maharaja Chhatrasal: भारत देश की भूमि वीरों की भूमि रही है। इस भूमि में अनेक वीर बादशाहों में जन्म लिया है। जिनके साहस और शौर्य का वर्णन भारत के इतिहास में मिलता है। उन्ही वीरो में से एक वीर थे बुंदेलखंडी महाराजा छत्रसाल।
17वीं शताब्दी के मध्य में संपूर्ण भारतवर्ष मुगल बादशाह औरंगजेब के कट्टर और अत्याचारी शासन से जूझ रहा था। पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी और राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ मुगल साम्राज्य को चुनौती देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सदैव तत्पर थे। भारतवर्ष में बुंदेलखंडी वीर भूमि भी इस संग्राम में दूर नहीं थी। महाराजा छत्रसाल ने बुंदेलखंड में रहते हुए मुगल शासको को नाखून चने चबाने के लिए विवश कर दिया था।
व्यक्तिगत परिचय
Maharaja Chhatrasal: बुंदेलखंड केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया में संवत 1706 को टीकमगढ़ जिले के मोर पहाड़ी नामक स्थान पर हुआ था। महाराजा छत्रसाल का जन्म भारत देश की मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले में 4 मई सन 1649 ईस्वी में हुआ था। छत्रसाल के पिता का नाम चंपत राय बुंदेला था जो नुना – महेवा के जागीरदार थे। छत्रसाल की मां का नाम लाल कुंवरी था लाली लाल कुंवरी बहुत ही वीरांगना महिला थी।
वीरांगना लाल कुंवरी
Maharaja Chhatrasal: ठीक समय की बात है महाराजा चंपत राय, रानी लाल कुंवरी और थोड़ी से सैनिकों के साथ वन में घूमने गए थे। उन्होंने अपने पुत्र क्षत्रसाल को पेड़ की डाल पर बंदे कपड़े के झूले में सुला दिया था। अचानक मुगल सेवा की एक टुकड़ी में चंपत राय पर आक्रमण कर दिया। मुगल सैनिकों के साथ घमासान युद्ध हुआ। रानी लाल कुंवरी वीरांगना महिला थी,
Maharaja Chhatrasal: अतः उन्होंने स्वयं मुगल सैनिकों से युद्ध किया। वीर चंपत राय विजय हुए मुगलों की सेना डर कर भाग गई। उन्होंने लौट कर देखा तो बालक छत्रसाल झूले में लेते हुए किलकारियां मार रहे थे।
Maharaja Chhatrasal: सुरक्षा और शिक्षा
Maharaja Chhatrasal: छत्रसाल की सुरक्षा और शिक्षा के लिए उनके माता-पिता ने उन्हें 5 वर्ष की आयु में ही उनके मामा के पास देलवारा गांव भेज दिया था। महज 11 वर्ष की आयु में ही बालक ने पढ़ाई लिखाई के साथ अस्त्र-शस्त्र के संचालन में निपुणता हासिल कर ली थी। बालक छत्रसाल में साहस, शौर्य, आत्मविश्वास, वीरता और निर्भयता की गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे।
वीरता और युद्ध कौशल का परिचय
Maharaja Chhatrasal: एक बार वीर छत्रसाल अपने कुछ साथियों के साथ घोड़े पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक मंदिर दिखाई दिया। जहां बहुत ही सुंदर मेला लगा था। मेले में आसपास के गांव से नर – नारी आ – जा रहे थे। तभी वहां कुछ मुगल सैनिक आ गए थे। मुगल सैनिक मंदिर और मूर्तियों को क्षति पहुंचाना चाहते थे और लोगों पर भी अत्याचार करना चाहते थे।
Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल ने उनको ललकारा और अकेले ही कई सैनिकों के साथ उनके नायक को भी मौत के घाट उतार दिया। शेष बचे हुए मुगल सैनिक जान बचाकर भाग गए। मेले में उपस्थित लोग छत्रसाल की वीरता और युद्ध कौशल को देखकर दंग रह गए। सभी ने अपने दातों तले उंगलियां दबा लीं।
माता- पिता का आत्मबलिदान
Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल का बचपन बहुत ही अभाओं, कठिनाइयों, और विपत्तियों से बीता था। वीर छत्रसाल अभी किशोर अवस्था में ही पहुंचे थे कुछ विश्वास घाटियों के कारण उनके माता-पिता को अपना आत्म बलिदान करना पड़ा। उनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वीर छत्रसाल अपनी विरासत की रक्षा के लिए उग्र हो उठे।
Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल अपने मामा के घर वापस लौट कर आए और अपने बड़े भाई अंगद राय से मिले। यहां उनकी माता के मुंह बोले भाई महाबली के पास उनकी मां की धरोहर आभूषण और घोड़ा उन्हें प्राप्त हुआ। वीर छत्रसाल में अपने पिता की इच्छा अनुसार बेरछा के पंवार वंश की कन्या देवकुंवरी के साथ विवाह किया।
भले भाई की उपाधि
Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल मुगलों से युद्ध करने से पहले उनकी रणनीति को समझना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए और सैन्य अनुभव प्राप्त करने के लिए उन्होंने औरंगजेब के सिपहसालार जयपुर नरेश राजा जय सिंह की सेना में सम्मिलित हो गए। राजा जयसिंह के साथ वीर छत्रसाल ने पुरंदर, बीजापुर और देवगढ़ की युद्ध में भाग लिया। देवगढ़ की युद्ध में वीर छत्रसाल ने दुश्मनों से इस प्रकार युद्ध किया कि उनके छक्के छूट गए। उन्होंने इस युद्ध में अपनी जान की बाजी लगा दी। वे इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो चुके थे।
Maharaja Chhatrasal: घायल अवस्था में उनके प्यारे घोड़े ने उनकी रक्षा रातभर की। दूसरे दिन छत्रसाल के भाई अंगद राय को पहचान जाने पर ही घोड़े ने छत्रसाल को शिविर से बाहर ले जाने दिया। छत्रसाल के स्वस्थ होने पर उन्होंने अपनी घोड़े को “भले भाई” की उपाधि दी। बाद में युद्ध में घोड़े की मृत्यु हो जाने पर महाराजा छत्रसाल ने घुबेला में “भले भाई” का स्मारक बनवाया था।
छत्रपति शिवाजी से भेंट
Maharaja Chhatrasal: राजा जयसिंह के यहां रहते हुए वीर छत्रसाल ने औरंगजेब की रणनीति भांप ली थी। उनका मुख्य उद्देश्य भी पूरा हो गया था। उन्होंने राजा जयसिंह को छोड़ दिया था। अब उनका अगला ध्येय था अपनी मातृभूमि से मुगलों के आधिपत्य को समाप्त करना। इस कार्य में सफलता पाने के लिए वीर छत्रसाल छत्रपति शिवाजी से भेंट करने पहुंचे। छत्रपति शिवाजी ने उन्हें स्वाधीनता का मंत्र और अपनी तलवार देकर बुंदेलखंड में स्वतंत्रता का अलख जगाने को भेज दिया।
Maharaja Chhatrasal: छत्रपति शिवाजी से भेंट करने के बाद वीर छत्रसाल अपनी जन्मभूमि वापस आए। उनके पास साधनों का अभाव था। संगी साथी भी नहीं थे। अतः उन्होंने अपने माता के आभूषणों को बेचकर पांच घोड़े और 25 सैनिकों की एक छोटी सी सेना तैयार की। उनकी इस सेना में सभी वर्गों के लोग थे। यह एक सच्ची जनसेना थी जो स्वाधीनता, सम्मान और अत्याचार के विरोध में एकजुट हो गई थी।
बुंदेलखंड पर आधिपत्य
Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल ने सबसे पहले सहारा पर आक्रमण किया। क्योंकि इसी विश्वासघाती की वजह से उनके माता-पिता को आत्म बलिदान करना पड़ा था। इसके बाद महाराज छत्रसाल ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। एक के बाद एक किलो पर अधिकार प्राप्त करते गए।
Maharaja Chhatrasal: उन्होंने 1671 से लेकर 1707 तक सिरोंज, धमनी, गढ़ाकोटा, येराच, भाड़ेर और कोच आदि महत्वपूर्ण स्थान पर विजय प्राप्त की। मुगलों से हुए युद्ध में उन्होंने मुनव्वर खान, अब्दुल समद, हामिद खान, फौजदार इख्लास खान, किलेदार मोहम्मद अफजल, शाहकुली, दिलावर खान, रद्दुला खान और दिलेर खान आदि अनेक सेनापतियों को पराजित किया। धीरे-धीरे बुंदेलखंड पर महाराजा छत्रसाल का अधिपति हो गया।
निष्कर्ष
Maharaja Chhatrasal: महाराजा छत्रसाल के साहस, शौर्य और वीरता की प्रसिद्ध से एक दोहा प्रसिद्ध हुआ।
इत जमुना उत नरबदा, इत चम्बल उत टौंस।
छत्रसाल सौ लड़न की, रही न काहू हौंस।।
छत्ता तेरे राज में, धक धक धरती होय।
जित जित घोड़ामुख करे, तित तित फत्तई होय।।
अक्सर पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
प्रश्न- महाराजा छत्रसाल को बुंदेल केसरी नाम से क्यों जाना जाता है?
उत्तर- Maharaja Chhatrasal: 17वीं शताब्दी के मध्य में संपूर्ण भारतवर्ष मुगल बादशाह औरंगजेब के कट्टर और अत्याचारी शासन से जूझ रहा था। पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी और राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ मुगल साम्राज्य को चुनौती देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सदैव तत्पर थे। भारतवर्ष में बुंदेलखंडी वीर भूमि भी इस संग्राम में दूर नहीं थी। महाराजा छत्रसाल ने बुंदेलखंड में रहते हुए मुगल शासको को नाखून चने चबाने के लिए विवश कर दिया था।
प्रश्न- महाराजा छत्रसाल कहाँ के राजा थे?
उत्तर- Maharaja Chhatrasal: बुंदेलखंड केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया में संवत 1706 को टीकमगढ़ जिले के मोर पहाड़ी नामक स्थान पर हुआ था। महाराजा छत्रसाल का जन्म भारत देश की मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले में 4 मई सन 1649 ईस्वी में हुआ था। छत्रसाल के पिता का नाम चंपत राय बुंदेला था जो नुना – महेवा के जागीरदार थे। छत्रसाल की मां का नाम लाल कुंवरी था लाली लाल कुंवरी बहुत ही वीरांगना महिला थी।
प्रश्न- बुंदेलखंड का राजा कौन है?
उत्तर- महाराजा छत्रसाल
प्रश्न- छत्रसाल अपने घोड़े को कैसे बुलाते थे?
उत्तर- “भले भाई”
प्रश्न- “भले भाई” कौन है?
उत्तर- Maharaja Chhatrasal: वीर छत्रसाल मुगलों से युद्ध करने से पहले उनकी रणनीति को समझना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए और सैन्य अनुभव प्राप्त करने के लिए उन्होंने औरंगजेब के सिपहसालार जयपुर नरेश राजा जय सिंह की सेना में सम्मिलित हो गए। राजा जयसिंह के साथ वीर छत्रसाल ने पुरंदर, बीजापुर और देवगढ़ की युद्ध में भाग लिया। देवगढ़ की युद्ध में वीर छत्रसाल ने दुश्मनों से इस प्रकार युद्ध किया कि उनके छक्के छूट गए। उन्होंने इस युद्ध में अपनी जान की बाजी लगा दी। वे इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो चुके थे।
घायल अवस्था में उनके प्यारे घोड़े ने उनकी रक्षा रातभर की। दूसरे दिन छत्रसाल के भाई अंगद राय को पहचान जाने पर ही घोड़े ने छत्रसाल को शिविर से बाहर ले जाने दिया। छत्रसाल के स्वस्थ होने पर उन्होंने अपनी घोड़े को “भले भाई” की उपाधि दी। बाद में युद्ध में घोड़े की मृत्यु हो जाने पर महाराजा छत्रसाल ने घुबेला में “भले भाई” का स्मारक बनवाया था।
प्रश्न- महाराजा छत्रसाल ने अपने घोड़े का स्मारक क्यों?
उत्तर- Maharaja Chhatrasal: घायल अवस्था में उनके प्यारे घोड़े ने उनकी रक्षा रातभर की। दूसरे दिन छत्रसाल के भाई अंगद राय को पहचान जाने पर ही घोड़े ने छत्रसाल को शिविर से बाहर ले जाने दिया। छत्रसाल के स्वस्थ होने पर उन्होंने अपनी घोड़े को “भले भाई” की उपाधि दी। बाद में युद्ध में घोड़े की मृत्यु हो जाने पर महाराजा छत्रसाल ने घुबेला में “भले भाई” का स्मारक बनवाया था।
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