समान्य भाषा में व्रत का अर्थ किसी विशिष्ट उद्देश्य को लेकर दृढ़तापूर्वक संकल्प करना होता है। जोकि शारीरिक और मानसिक संकल्प के साथ किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्म संयम, भक्ति और श्रद्धा की भावना को बढ़ावा देना होता है।
सामान्य भाषा में उपवास का अर्थ भोजन, जल और अन्य भोगों का त्याग करना होता है। जिसका उद्देश्य शारीरिक शुद्धि के साथ मानसिक और आत्मिक शुद्ध होता है।
सनातन संस्कृति में व्रत को तीन भागों में बांटा गया है। इन व्रत के पालन से व्यक्ति को आत्म शक्ति और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है। व्रत के दौरान उपासक को सदा सत्य बोलना, पवित्रता बनाए रखना, किसी पर क्रोध न करना और अपनी ज्ञानइंद्रियों पर नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक होता है।
सनातन धर्म में व्रत का आचरण विशेष समय और स्थान पर होता है। प्रत्येक व्रत का अपना एक विशेष महत्व, विधि और नियम सनातन संस्कृति में वर्णित है। सभी व्रत का नियम अलग-अलग हो सकता है, लेकिन उद्देश्य सिर्फ आत्म संयम, भक्ति और श्रद्धा भाव ही होता है।
वर्ष का शाब्दिक अर्थ होता है, कि भगवान की भक्ति भाव में लीन रहना। उपासक व्रत के दौरान भोजन, जल व अन्य किसी वस्तु का त्याग करता है। और भगवान की आराधना प्रसन्न मन से करता है। जिससे उसकी आंतरिक आत्मा शुद्ध बनी रहती है।
आज के समय में व्रत और उपवास का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों से ही हमारे शरीर को विश्राम मिलता है। और हमारी पाचन तंत्र साफ और स्वस्थ बना रहता है। जिससे आत्म नियंत्रण का विकास होने लगता है।